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गरीब-मजलूमों की हमेशा आवाज बनती रहेगी फैज की नज्में

               मशहूर शायर फैज अहमद फैज को याद किया अंचल के हिंदी-उर्दू के कलमकारों ने भि लाई।  अंर्तराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त शायर दिवंगत फैज़...

               मशहूर शायर फैज अहमद फैज को याद किया अंचल के हिंदी-उर्दू के कलमकारों ने



भिलाई। अंर्तराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त शायर दिवंगत फैज़ अहमद फैज़ के स्मृति दिवस पर दुर्ग-भिलाई और रायपुर

के साहित्यकारों व उनके चाहने वालों ने ”फैज़ की याद में” कार्यक्रम आयोजित करके उन्हें याद कियारविवार 21 नवंबर को जनवादी लेखक संघ, मूलनिवासी कला साहित्य और फिल्म फेस्टिवल तथा आल इंडिया सेल एससी एसटी इम्पलाइज फेडरेशन के संयुक्त तत्वावधान में उक्त कार्यक्रम गरिमा पूर्ण ढंग से संपन्न हुआ।

भिलाई स्टील प्लांट के रिटायर जनरल मैनेजर एल उमाकांत की अध्यक्षता में अंचल के हिन्दी-उर्दू के प्रतिष्ठित कलमकारों ने शिरकत कर फैज़ को अपने-अपने तरीके से याद किया।
रायपुर, दुर्ग व भिलाई से पधारे प्रमुख वक्ताओं में नासिर अहमद सिकंदर, डॉ. साकेत रंजन प्रवीर, मिर्जा हाफिज़ बेग, इजराइल बेग ‘शाद’ व विश्वास मेश्राम उपस्थित हुए। वक्ताओं ने फैज़ को उनकी बहुआयामी रचनाधर्मिता और उनके गहरे सामाजिक सरोकारों की परिधी में देखने और उनकी कालजयी रचनाओं को युग सापेक्ष प्रासंगिकता की धरातल पर समायोजित करने का प्रयास किया और उनकी वर्तमान उपयोगिता को रेखांकित किया।


संचालन करते हुए विश्वास मेश्राम ने कहा कि जब तक धरती के किसी भी कोने में शोषितों, मजलूमों, निर्बलों और रोटी के लिए जद्दोजहद करते लोगों की मौज़ूदगी रहेगी तब तक फैज़ की नज्में उन गरीबों, शोषितों की आवाज़ बनती रहेगी।
उपन्यासकार मिर्जा हफीज ने भिलाई में फैज पर केन्द्रित कार्यक्रमों को याद किया और नौजवानों को आकर्षित करने वाली फैज की रचनाओं के दिल में उतर जाने की याद दिलाई। उन्होंने उनकी बहुत प्रसिद्ध पंक्तियों ”मताए लौहो-कलम छिन गई तो क्या गम है, के खूने-दिल में डूबो ली हैं उंगलियां मैने” को दोहराकर श्रोताओं की तालियां बटोर ली।

शायर इजराइल बेग ‘शाद’ ने फैज़ अहमद फैज की निर्भीक व क्रान्तिकारी रचनाओं को रेखांकित करते हुए उनके मानवतावादी व्यक्तित्व से परिचय कराया। उन्होंने फैज को किसी एक देश का नहीं बल्कि पूरी दुनियां का चहेता शायर बताया। वरिष्ठ साहित्यकार और जनवादी लेखक संघ के प्रांतीय महासचिव नासिर अहमद सिकंदर ने फैज़ की रचनाओं में मौज़ूद साधारण से लगने वाले लेकिन बेहद गहरे प्रतीकों के रहस्यों का उद्घाटन करते हुए फैज़ के शोषितों और शोषकों के बीच के संघर्षमय संबंधों और अपने समय की सामाजिक न्याय की पक्षधरता को परिभाषित किया। उन्होंने उनके इंकलाबी रुझान पर खास तौर पर रोशनी डाली ।


इस कार्यक्रम में राकेश बंबार्डे दुर्ग ने ”आज बाजार में पा-बजोला चलों”, तपेश मेश्राम दुर्ग ने ”तुम आये हो न शबे-इंतजार गुजरी है”, उमा प्रकाश ओझा रायपुर ने उनकी प्रसिद्ध नज्म ”ये गलियों के आवारा कुत्ते” , ”न उनकी हार नई है न अपनी जीत नई” और ”मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरे महबूब न मांग”, अधीर भगवनानी रायपुर ने ”आईए हाथ उठाएं हम भी”, ”हम जिन्हें हर्फे-दुआ याद नहीं” जैसी फैज़ की चर्चित रचनाओं की सस्वर प्रस्तुति करके कार्यक्रम में चार चांद लगा दिए।


कार्यक्रम को आयोजित करने के लिए अशोक ढवले, चित्रसेन कोसरे, वासुदेव, सुधीर रामटेके, बीवी रविकुमार, लक्ष्मीनारायण कुम्भकार, जी डी राउत, सुभाष बंसोड़कर, अरविंद रामटेके, युगल किशोर साहू, प्रदीप सोम कुॅवर, ओमप्रकाश जायसवाल,संदीप पाटिल, विलास राउलकर और विमल शंकर आदि ने सक्रिय भागीदारी की। जलेस के राकेश बंबार्डे ने अतिथियों का आभार व्यक्त किया।

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